🍀 राजकुमार का परीक्षण 🍀
बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित हो गया, दीक्षा के दूसरे ही दिन बुद्ध ने उसे किसी श्राविका के घर भिक्षा लेने भेज दिया। रास्ते में उसके मन में खयाल आया कि मुझे जो भोजन प्रिय है, वह तो अब नहीं मिलगा। जब वह श्राविका के घर पहुंचा तो वही भोजन थाली में देख बहुत हैरान हुआ। फिर सोचा संयोग होगा, जो मुझे पसंद है वही आज बना होगा। भोजन करने के बाद उसे खयाल आया कि रोज तो भोजन के बाद वह दो घड़ी विश्राम करता था आज तो फिर धूप में वापस लौटना है। तभी वह श्राविका बोली "भिक्षु बड़ी अनुकंपा होगी अगर आप भोजन के बाद दो घड़ी विश्राम करो। वह बहुत हैरान हुआ। उसने सोचा संयोग की ही बात होगी कि जो बात मेरे मन में आई और उसके मन में भी सहज बात आई होगी कि भोजन के बाद भिक्षु विश्राम कर ले।
चटाई बिछा दी गई, वह लेट गया, लेटते ही उसके मन में खयाल आया कि आज न तो अपना कोई कोई छप्पर है, न अपना कोई बिछौना है, अब तो आकाश छप्पर है, जमीन बिछौना है।
यह सब सोच ही रहा होता है कि श्राविका लौटती है और कहती है "ऐसा क्यों सोचते हैं? न तो किसी की शय्या है, न किसी का बिछौना है।"
अब संयोग मानना कठिन था, अब तो बात स्पष्ट हो गई। वह उठ कर बैठ गया और बोला "मैं बहुत हैरान हूं, क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरा अंत:करण तुम पढ़ लेती हो?" श्राविका बोली" निश्चित ही।"
वह स्वयं के विचारों का निरीक्षण करने लगा। अचानक वह घबराकर खड़ा हो गया और बोला "मुझे आज्ञा दें, मैं जाता हूँ, उसके हाथ-पैर कंपने लगे।" श्राविका बोली" इतने घबराते क्यों हैं? इसमें घबराने की क्या बात है?"
लेकिन भिक्षु फिर रुका नहीं। वह वापस लौटकर बुद्ध से बोला "क्षमा करें, मैं उस द्वार पर दुबारा भिक्षा मांगने न जा सकूंगा।"
बुद्ध बोले "वहां कोई भूल हुई?"
उस भिक्षु ने कहा " नहीं, भूल तो कोई नहीं हुई। बहुत आदर-सम्मान मिला और जो भोजन मुझे प्रिय था वह मिला लेकिन वह श्राविका दूसरे के मन के विचारों को पढ़ लेती है, यह तो बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो कामवासना भी उठी, विकार भी उठा, वह भी उसने पढ़ लिया गया होगा। अब मैं वहां कैसे जाऊं? मैं कैसे उसका सामने करूँगा? मैं वहां नहीं जा सकूंगा, मुझे क्षमा करें!"
बुद्ध ने कहा " तुम्हें वहां जाना पड़ेगा। अगर ऐसे क्षमा ही मांगनी थी तो भिक्षु नहीं होना था। जब तक मैं न रोकूंगा, तब तक वहीं जाना पड़ेगा, महीने दो महीने, वर्ष दो वर्ष, निरंतर यही तुम्हारी साधना होगी। लेकिन होशपूर्वक जाना, भीतर जागे हुए जाना और देखते हुए जाना कि कौन से विचार उठते हैं, कौन सी वासनाएं उठती हैं, और कुछ भी मत करना, लड़ना मत। जागे हुए जाना, देखते हुए जाना भीतर कि क्या उठता है, क्या नहीं उठता।"
वह दूसरे दिन भी वहां के लिए निकल पड़ा। वह भिक्षु बहुत खतरे में था, अपने मन को देख रहा था, जागा हुआ था। आज पहली दफा जिंदगी में वह जागा हुआ चल रहा था। जैसे-जैसे उस श्राविका का घर करीब आने लगा, वह और सचेत हो गया। भीतर जैसे एक दीया जलने लगा और चीजें साफ दिखाई देने लगीं। जैसे उसके घर की सीढ़ियां चढ़ा, उसके भीतर एक सन्नाटा छा गया , होश पूरी तरह से जग गया। वह अपना पैर तक उठाता था तो उसे मालूम पड़ रहा था, श्वास भी आती-जाती उसके ध्यान में थी। ज़रा सी कंपन भी उसे महसूस हो रही थी। कोई वासना की लहर भी उसको दिखाई पड़ रही थी। वह घर के भीतर दाखिल हुआ, मन बिलकुल शांत हो गया, वह बिलकुल जागा हुआ था। जैसे किसी घर में दीया जल रहा हो और उससे एक-एक चीज, एक कोना-कोना प्रकाशित हो रहा हो।
वह भोजन के लिए बैठा। वह भोजन करके वापस जाने के लिए उठा। उस दिन वह नाचता हुआ वापस लौटा। बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और बोला "आज एक अदभुत बात हुई। जैसे ही मैं उसके घर के पास पहुंचा और मैं पूरी तरह से जग गया, वैसे ही मैंने पाया कि विचार तो विलीन हो गए, कामनाएं तो क्षीण हो गईं। मैं जब उसके घर के अंदर गया तो मेरे भीतर पूरी तरह से सन्नाटा था, मेरे मन में कोई विचार नहीं था, कोई वासना नहीं थी, वहां कुछ भी नहीं था, मन बिलकुल शांत और निर्मल दर्पण की भांति था।"
बुद्ध ने कहा "इसीलिए तुम्हें वहां भेजा था, कल से तुम्हें वहां जाने की जरूरत नहीं। अब से अपने जीवन में इसी भांति जीओ, जैसे तुम्हारे विचार सारे लोग पढ़ रहे हों। अब जीवन में इसी भांति चलो, जैसे जो भी तुम्हारे सामने है, वह जानता है, वह तुम्हारे भीतर देख रहा है। इस भांति भीतर चलो और भीतर जागे रहो। जैसे-जैसे जागरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे विचार, वासनाएं क्षीण होती चली जाएंगी। जिस दिन जागरण पूर्ण होगा उस दिन तुम्हारे जीवन में कोई कालिमा नहीं रह जाएगी। उस दिन एक आत्म-क्रांति हो जाएगी। इस स्थिति के जागने को, इस चैतन्य के जागने को मैं कह रहा था--विवेक का जागरण।