पुस्तक की व्यथा
लॉक डाउन समय में, घर में पड़ा-पड़ा ऊब रहा
विद्यालय बंद, काम कुछ नहीं,
सोचा-चलूँ घर में रखी पुस्तकों की ओर,
बहुत दिवस हो गए पुस्तकों को हाथ लगाए।
अनमना सा आया बुक शेल्फ के पास,
कुछ सोचकर उठाई ही थी एक पुस्तक,कि
पुस्तक सरसराई, फडफडाई,फुसफुसाई-मित्र!
मैंने देखा इधर-उधर, पूछा-कौन?
आवाज़ आई-मैं,तुम्हारे हाथ की पुस्तक,
तुम्हारी दोस्त एकांत समय की।
बहुत दिन हुए,कहाँ थे?मैं तो धन्य हो गई,
परस पाकर तुम्हारे सुकोमल करों का।
कैसे आना हुआ?वक्त कैसे मिल गया आज?
ठीक तो हो?एक साथ इतने प्रश्न,
ताने भी,उलाहने भी।
मैं लज्जित, देख रहा था उसकी भंगिमाएं,
सुन रहा था उसकी करुण कातर फुसफुसाहट।
सचमुच हमने पुस्तकों से कितनी दूरी बना की है,सोशल मीडिया के जमाने में।
ये मित्र हैं, सहचर हैं, ज्ञानदर्शिका हैं, और बहुत कुछ,
भुला दिया है हमनें इन्हें समय न होने का झूठा हवाला देकर।
आओ लौटें फिर पुस्तकों की दुनिया की ओर,
सैर करें कल्पनालोक की,भूल जाएं भौतिक दुख।
फिर से पुस्तकों को मान दें,पढ़ें और पढाएं,
फिर से पुस्तकों का संसार बनाएं।।
फूलचंद्र विश्वकर्मा
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